(Front News Today) भारत ने ना सिर्फ आजादी के बाद अनुशासन को भुला दिया बल्कि धीरे धीरे अपनी असली पहचान का भी तिरस्कार कर दिया. वो पहचान जिसे हासिल करने के लिए भारत ने 200 वर्षों तक संघर्ष किया था. इसी पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है भाषा. भारत में 22 आधिकारिक भाषाएं हैं जबकि बोलियों और क्षेत्रीय भाषाओं की संख्या 19 हज़ार 500 है. लेकिन फिर भी जिस अकेली भाषा के पीछे पूरा भारत दौड़ रहा है अंग्रेजी है. अंग्रेजों के जाने के बाद भी..भारत के लोग अंग्रेजी के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाए. शायद यही वजह थी कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने जब भारत के आजाद होते ही संसद के सेंट्रल हॉल में अपना पहला एतिहासिक भाषण दिया तो इसके लिए उन्होंने अंग्रेजी को चुना.
जब भारत आजाद हुआ तब भारत की जनसंख्या 33 करोड़ थी और इनमें से सिर्फ 18 प्रतिशत लोग ही साक्षर थे. यानी भारत की 82 प्रतिशत जनता उस समय अनपढ़ थी. इन पढ़े लिखे लोगों में से भी सिर्फ कुछ मुट्ठी भर लोग ही अंग्रेजी जानते थे. फिर भी देश के पहले प्रधानमंत्री ने अपना पहला भाषण अंग्रेजी में ही दिया और इसका परिणाम ये है कि आज भी भारत के करोड़ों लोग अंग्रेजी को ही सफलता की गारंटी मानते हैं. लेकिन ये सच नहीं है. भारत इन 74 वर्षों में अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या के मामले में दुनिया में अमेरिका के बाद दूसरे नंबर पर तो आ गया.लेकिन भारत के ज्यादातर लोगों ने अपनी भाषाओं और जड़ों को भुला दिया. जबकि इसी दौरान चीन, जर्मनी और जापान जैसे देशों ने कभी अपनी मातृभाषा का साथ नहीं छोड़ा.
चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है.लेकिन वहां सिर्फ 1 प्रतिशत लोग अंग्रेजी बोलना जानते हैं. इसी तरह जापान दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश है.लेकिन वहां की सिर्फ 2 प्रतिशत जनता ही धारा प्रवाह अंग्रेज़ी बोलने में सक्षम है. जबकि जर्मनी में सिर्फ 0.34 प्रतिशत जनसंख्या ऐसी है जिसकी मातृभाषा अंग्रेजी है यानी जर्मनी की 99.66 प्रतिशत जनसंख्या अपनी मातृभाषा में ही बात करती है. इसके बावजूद अर्थव्यवस्था के मामले में दुनिया में चौथे नंबर पर है. अंग्रेजी को सफलता की कुंजी बताने वाला विचार ना सिर्फ एक झूठ है बल्कि इस झूठ के दम पर भारत की अपनी भाषाओं के साथ सौतेला व्यवहार किया जाता है. भारत की भाषाओं की ये दुर्गति इसलिए भी हुई है क्योंकि अंग्रेजों के जाने के बाद जिन लोगों के कंधों पर भारत का सिस्टम चलाने की जिम्मेदारी थी. वो अपनी ही दुनिया में खोए हुए थे. अंग्रेज भारत के इन अधिकारियों को बाबू कहकर बुलाते थे और ये बाबू इस उपाधि को किसी मेडल जैसा समझकर बाबूगिरी में व्यस्त रहे.